Sarhul
सरहुल झारखंड का एक प्रमुख आदिवासी पर्व है, जो प्रकृति पूजा और नव वर्ष के आगमन का प्रतीक है। यह मुख्य रूप से मुंडा, ओरांव (उरांव), हो और संथाल जैसे जनजातियों द्वारा मनाया जाता है। “सरहुल” शब्द का अर्थ है “साल वृक्ष की पूजा” (‘सर’ यानी साल और ‘हुल’ यानी पूजा या शुरुआत)। यह पर्व प्रकृति के प्रति इन जनजातियों के गहरे लगाव को दर्शाता है।
कब मनाया जाता है?
सरहुल हिंदू कैलेंडर के चैत्र मास में, शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है, जो आमतौर पर मार्च या अप्रैल में पड़ता है। यह वसंत ऋतु की शुरुआत का समय होता है, जब साल वृक्ष पर नए फूल खिलते हैं। साल 2025 में यह 1 अप्रैल को मनाया जाएगा।
कैसे मनाया जाता है?
- साल वृक्ष की पूजा: इस पर्व का मुख्य आकर्षण साल वृक्ष की पूजा है। जनजातीय लोग मानते हैं कि साल वृक्ष में उनकी देवी “सरणा” निवास करती हैं, जो गाँव को प्राकृतिक आपदाओं से बचाती हैं। पूजा “सरणा स्थल” या “जाहेर” में की जाती है, जहाँ गाँव के पुजारी (पाहन) साल के फूल, फल, और कभी-कभी मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं।
- रस्में: पाहन कुछ दिनों तक उपवास रखता है। पूजा से पहले वह तीन मिट्टी के घड़ों में पानी भरता है, जिसके जल स्तर से वर्षा और फसल की भविष्यवाणी की जाती है। पूजा के बाद साल के फूल और प्रसाद (जैसे हंडिया – चावल से बनी देसी शराब) ग्रामीणों में बाँटा जाता है।
- नृत्य और संगीत: लोग रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधानों में नृत्य करते हैं, जैसे करमा, जदुर और छऊ नृत्य। ढोल, नगाड़ा और मांदर की थाप पर गीत गाए जाते हैं।
- फूलखोंसी: साल के फूलों को घरों की छतों पर रखा जाता है, जो भाईचारे और मित्रता का प्रतीक है।
महत्व
- प्रकृति से जुड़ाव: सरहुल प्रकृति के प्रति सम्मान और उसके संरक्षण का संदेश देता है। यह पर्व मानव और प्रकृति के अटूट रिश्ते को मजबूत करता है।
- नव वर्ष: यह आदिवासियों के लिए नए साल की शुरुआत है। इसके बाद ही खेती-बाड़ी का काम, जैसे बीज बोना, शुरू किया जाता है।
- सांस्कृतिक पहचान: यह पर्व झारखंड की जनजातीय संस्कृति और परंपराओं को जीवित रखता है।
व्यंजन
इस मौके पर खास व्यंजन बनाए जाते हैं, जैसे हंडिया, धुस्का (चावल और दाल का पकवान), और मछली व सब्जियों से बने व्यंजन, जो वसंत के आगमन का प्रतीक हैं।
इतिहास और किंवदंतियाँ
कुछ किंवदंतियों के अनुसार, सरहुल की शुरुआत महाभारत काल से हुई। एक लोककथा में कहा जाता है कि एक बच्चे ने “सरेम बूढ़ी” नामक राक्षस को हराया था, जिसके बाद यह उत्सव शुरू हुआ। यह पर्व कई दिनों तक चलता है और खुशी व समृद्धि का प्रतीक है।
संक्षेप में, सरहुल केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि झारखंड की समृद्ध प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है, जो एकता, प्रेम और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को बढ़ावा देता है।